Wednesday 18 February, 2009

एक कविता नेहा के नाम

निहारिका(नेहा)

भगवान् तुम कभी अगर स्कूल गए होते.

भगवान् तुम कभी अगर स्कूल गए होते,

श्रृष्टि को रचना ही भूल गए होते!

आध मन का होता गर तुम्हारा बस्ता,

ढाई कोस होता घुमाव-दार रस्ता,

पाँव सूज-कर पूरे फूल गए होते...

आए-रोज होती आपकी परीक्षा,

कुछ भी करने की होती ना इच्छा ,

होम-वर्क के फंदे से झूल रहे होते....

कर्म ही पूजा है उपदेश ये सुनाते,

आती याद नानी जो पाठशाला जाते,

लगता ये वचन फ़िर फिजूल कहे होते...

करना जो पड़ता तुमको होम-वर्क सारा,

बे-वजह चढ़ता टीचर्स का पारा ,

पीठ पर डंडों के शूल सहे होते...

भगवान् तुम कभी अगर स्कूल गए होते.....


( ये रचना मेरी छोटी बिटिया नेहा के आग्रह पर आनन् -फानन मैं लिखी गई है क्यूंकि उसे स्कूल मैं ताज़ी रचना सुनानी थी और समय कम था इसलिए ये उन बच्चों को समर्पित है जो स्कूल जाती बार तो उदास हो जाते हैं लेकिन वापिस घर लौटती बार चहक रहे होते हैं!काश ऐसा होता कि बच्चे रोज खुशी-खुशी स्कूल जाते)



Sunday 15 February, 2009

प्रकाश बादल को कोटि-कोटि धन्यवाद

बादल मेरी छत से गुजरा जो एक बार,
उजड़े हुए चमन मैं आई नई बहार,
सच मानिए ! ये प्रकाश 'बादल' का प्रयास है जो मुझे अपने विचार व्यक्त करने का साहस हुआ!वैसे में उनकी गजलों का मुरीद हूँ!वो मीटर में हो या न हो उनका असर हजारों किलो -मीटर तक है ! बादल जी को कोटि -कोटि धन्यवाद.....

Friday 13 February, 2009

अपनी ही उलझनों मैं उलझता हुआ मिला...

अपनी ही उलझनों मैं उलझता हुआ मिला,
जो भी मिला सवाल ही करता हुआ मिला॥

निकला था ढूँढने मैं खुशी तेरे शहर में ,
गम हर गली से मुझ को गुजरता हुआ मिला॥

चेहरे पर अजनबी से मुखोटे ओढ़ कर,
हर शक्श कई रंग बदलता हुआ मिला

जीवन के अर्थ,अर्थ की दलदल में धंस गए,
सच्चा बेचारा हाथ ही मलता हुआ मिला॥

कैसे मनाये ईद -दीवाली -गुरु पर्व,
मजहब बारूदी ढेर पर चलता हुआ मिला।

मंजिल नजर से दूर थी चलना तो था 'पथिक',
निकले, तो इक हजूम निकलता हुआ मिला..


फ़िर कहानी शुरू हो गई...


फ़िर कहानी शुरू हो गई,
जिंदगानी शुरू हो गई...

दूध के दांत टूटे ना थे
और जवानी शुरू हो गई...
पहले टाँके खुले भी ना थे,
छेड़खानी शुरू हो गई...

जब परीक्षा की आई घड़ी,
नींद आनी शुरू हो गयी

जब से माँऐके से आई है वो,
परेशानी शुरू हो गयी....
फ़ोन साले का आया ही था,
मेजबानी शुरू ही गयी...

जिंदगी मौत से जब मिली,
खींच -तानी शुरू हो गयी॥




जब से दिल उन पे आशनां सा है....


जब से दिल उन पे आशनां सा है,
जिंदगी मैं अलग नशा सा है...

उस मैं ख़ुद को तलाश करता हूँ,
उस का चेहरा ही आइना सा है...

उस के दम पे है रौशनी वरना,
हर तरफ़ अब धुआं-धुआं सा है...

यूँ तो रहता है धडकनों मैं शुमार,
हाँ मगर आज कल खफा सा है...

हूँ अकेला मगर नहीं तनहा,
संग यादों का काफिला सा है,

एक बिजली बदन मैं कोंध गई,
उस के एहसास ने छुआ सा है.

है 'पथिक' जिंदगी बहुत छोटी ,
पूछती है घड़ी बजा क्या है...


पैथागोरस की प्रमेय


रेत के अब घर बनाना छोड़ दो,
आग पानी मैं लगाना छोड़ दो॥

हसरतों को दफ़न कर दो फ़िर कहीं ,
मुड़ के फ़िर उस और जाना छोड़ दो...

ख्वाब -सच तो दो नदी के छोर हैं,
इनके ऊपर पुल बनाना छोड़ दो...

तुम अँधेरा दूर न कर पाओगे,
बे -वजह यूँ टिम-टिमाना छोड़ दो...

हो चुके खंडहर यहाँ अरमान सब,
नींव इनकी अब हिलाना छोड़ दो...

प्य्थागोरस की प्रमेय है जिंदगी,
इस मैं नाहक सर खपाना छोड़ दो॥

हिज्र की रातें यूँ ही कट जायेंगी,
खून के आंसू बहाना छोड़ दो...

ओ 'पथिक' इस गूंगे -बहरे शहर को,
दास्ताने-दिल सुनाना छोड़ दो.....