Friday 13 February, 2009

अपनी ही उलझनों मैं उलझता हुआ मिला...

अपनी ही उलझनों मैं उलझता हुआ मिला,
जो भी मिला सवाल ही करता हुआ मिला॥

निकला था ढूँढने मैं खुशी तेरे शहर में ,
गम हर गली से मुझ को गुजरता हुआ मिला॥

चेहरे पर अजनबी से मुखोटे ओढ़ कर,
हर शक्श कई रंग बदलता हुआ मिला

जीवन के अर्थ,अर्थ की दलदल में धंस गए,
सच्चा बेचारा हाथ ही मलता हुआ मिला॥

कैसे मनाये ईद -दीवाली -गुरु पर्व,
मजहब बारूदी ढेर पर चलता हुआ मिला।

मंजिल नजर से दूर थी चलना तो था 'पथिक',
निकले, तो इक हजूम निकलता हुआ मिला..


2 comments:

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  2. wow!! dis reminds me of the poems i did in school time. the likes of sumitranandan pant. ones i can remember. very strong. the last one was funny, naughty(neha wala).. this one a phase apart.

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