रेत के अब घर बनाना छोड़ दो, आग पानी मैं लगाना छोड़ दो॥ हसरतों को दफ़न कर दो फ़िर कहीं , मुड़ के फ़िर उस और जाना छोड़ दो... ख्वाब -सच तो दो नदी के छोर हैं, इनके ऊपर पुल बनाना छोड़ दो... तुम अँधेरा दूर न कर पाओगे, बे -वजह यूँ टिम-टिमाना छोड़ दो... हो चुके खंडहर यहाँ अरमान सब, नींव इनकी अब हिलाना छोड़ दो... प्य्थागोरस की प्रमेय है जिंदगी, इस मैं नाहक सर खपाना छोड़ दो॥ हिज्र की रातें यूँ ही कट जायेंगी, खून के आंसू बहाना छोड़ दो... ओ 'पथिक' इस गूंगे -बहरे शहर को, दास्ताने-दिल सुनाना छोड़ दो..... |
Friday 13 February, 2009
पैथागोरस की प्रमेय
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सुंदर रचना!
ReplyDeleteप्य्थागोरस के प्रमेय तो स्कूल की पढ़ाई के समय भी कभी समझ नहीं आये ...अब क्यों सर खपायें ..!!
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